अधिगम, अधिगम अन्तरण, तर्क, एवं समस्या समाधान
अधिगम
सीखना या अधिगम एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।
अधिगम की परिभाषायें–
- बुडवर्थके अनुसार – ‘‘सीखना विकास की प्रक्रिया है।’’
- स्किनरके अनुसार – ‘‘सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।’’
- जे॰पी॰ गिलर्फडके अनुसार – ‘‘व्यवहार के कारण, व्यवहारमें परिवर्तन ही सीखना है।’’
- कालविनके अनुसार – ‘‘पहले से निर्मित व्यवहार में अनुभवों द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते हैं।’’
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सीखने के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है, व्यवहार में यह परिवर्तन बाह्य एवं आंतरिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है। अतः सीखना एक प्रक्रिया है जिसमें अनुभव एवं प्रषिक्षण द्वारा व्यवहार में स्थायी या अस्थाई परिवर्तन दिखाई देता है।
ई॰एल॰ थार्नडाइक अमेरिका का प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुआ है जिसने सीखने के कुछ नियमों की खोज की जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है–
(क) मुख्य नियम (Primary Laws)
- तत्परता का नियम
- अभ्यास का नियम
- उपयोग का नियम
- अनुप्रयोग का नियम
- प्रभाव का नियम
(ब) गौण नियम (Secondary Laws)
- बहु-अनुक्रिया का नियम
- 2.मानसिक स्थिति का नियम
- आंशिक क्रिया का नियम
- समानता का नियम
- साहचर्य-परिर्वतन का नियम
मुख्य नियम
सीखने के मुख्य नियम तीन है जो इस प्रकार हैं –
- तत्परता का नियम– इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती हैतो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।
- अभ्यास का नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के प्रष्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग नियम भी कहते हैं।
- प्रभाव का नियम– इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।
गौण नियम
- बहु अनुक्रिया नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
- मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम– इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।
- आंशिक क्रिया का नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंर्तदृष्टि का उपयोग कर आंषिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।
- समानता का नियम– इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मद्द करते हैं।
- साहचर्य परिवर्तन का नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।
सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षेत्र के जिम्मेदार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे जटिल प्रश्न यह है कि हम सीखते कैसे हैं ?
अधिगम की आवश्यकता–
- अधिगम पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राणी को लिए आवश्यक है। अधिगम के बिना एक जीवंत आदमी किसी काम का नहीं होता। कोई भी व्यक्ति जो अपने वातावरण को भी नहीं समझता वह मृत व्यक्ति के समान है। कल्पना करो कि कोई व्यक्ति जन्म लेता है और खुली हवा में सांस लेना नहीं सीखता तो वह किसी भी समय मर सकता है।
- अधिगम वृद्धि एवं विकास में सहायक है। परिपक्वता और अधिगम में अंतर क्रिया के परिणाम स्वरुप ही हमारे व्यक्तित्व के सभी पक्षों भौतिक पक्ष, गामक पक्ष, संज्ञानात्मक पक्ष, सामाजिक पक्ष, संवेगात्मक पक्ष आदि सभी का विकास होता है। परिपक्वता से हमारे शरीर का विकास होता है। परंतु अधिगम एक अर्जित व्यवहार होने के नाते निश्चित दिशा और दशा प्रदान करता है।
- अधिगम हमारे जीवन की आधारभूत आवश्यकता का बोध कराने में सहायता करता है और हमें ऐसे तरीके सिखाता है। जिससे हम उन्हें प्राप्त कर सके तथा उन पर आधिपत्य कर सके। एक व्यक्ति से जीवन भर हाथ से पकड़कर कार्य नहीं करवाया जा सकता जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसे यह सिखाने की आवश्यकता होती है कि खाना कैसे खाना है और इसके पश्चात उसे अपना वजन कैसे कम आना है।
- अधिगम वातावरण अनुकूल करने में सहायक है, अधिगम हमें जैसे-जैसे वातावरण में परिवर्तित होते हैं उनके सापेक्ष परिवर्तित होने में सहायता करता है, उदाहरण के लिए हम देख सकते हैं कि मरुस्थलों में भी लोगों ने वातावरण के अनुकूल अपनी जीवनशैली को परिवर्तित किया है ना कि केवल उच्चतम तापमान के अनुसार कितने लोगों ने स्थान नई नौकरी तथा नवीन संबंधों के अनुसार भीहमें स्वयं समायोजित करना पड़ता है। इसलिए केवल अधिगम ही हमारी सहायता कर सकता है।
- अधिगम अधिक कुशल बनाने में सहायक, अधिगम अधिक कुशल बनाने में तथा ऊंचा स्थान प्राप्त करने में सहायता करता है। यदि आप किसी भी व्यक्ति की योग्यता पर पढ़ते हो तो उसके कार्य होने की जानकारी प्राप्त करते हो क्योंकि यही सूचना आपको उसके नियम की स्थिति की जानकारी प्रदान करती है। इसके पीछे यही मान्यता है कि जितना समय आपने कुछ करने के लिए खर्च किया है उसने आपके अधिगम को बढ़ावा दिया है।
- अधिगम गहन ज्ञान प्रदान करने में सहायक, किसी भी विषय के बारे में ग्रहण ज्ञान प्रदान करने में सहायता होती है। जो आप किताबी शिक्षा से प्राप्त नहीं कर सकते हमें याद रखना चाहिए कि इतिहास में अधिकतर प्रसिद्ध व्यक्ति शिक्षित नहीं थे परंतु उन्हें अपने कार्य व्यापार का पूर्ण ज्ञान क्या इसके पीछे प्रमुख कारण था उनका अधिगम ना की शिक्षा आप किसी भी व्यक्ति के बारे में अधिगम कैसे प्राप्त करते हो। यह आपको सामान्य व्यक्ति से एक नेता की स्थिति में पहुंचा सकता है।
- अधिगम योग्यता को बढ़ाता है, अधिगम प्राप्त करने की आपकी योग्यता तथा इच्छा ही इस बात का निश्चय करती है कि आप अपने जीवन में क्या करोगे तथा आप को कितनी सहायता मिलेगी आपको अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों की पूर्ति के लिए संपर्क लोगों तथा परिस्थितियों के अधिगम का प्रयोग करना पड़ता है।
- अधिगम अच्छे व्यक्ति बनाने में सहायक, जब तक हम अनुभव तथा शिक्षा प्राप्त नहीं कर लेते अधिगम संपूर्ण नहीं हो सकता। इन में से किसी एक की भी कमी दूसरे के प्रयोग को नकार सकती है। हम नागरिक के कर्तव्य तथा अधिकारों का ज्ञान विद्यालय में प्राप्त करते हैं परंतु अच्छी नैतिकता तथा व्यवहार अनुभव प्राप्त करने के पश्चात किया जाता है। जब तक हमारे पास यह सब नहीं होगा तब तक हम अच्छे व्यक्ति के रुप में विकसित नहीं हो सकते।
अधिगम अन्तरण
अधिगम अंतरण या सीखने के अंतरण को प्रशिक्षण अंतरण अथवा प्रशिक्षण स्थानांतरण भी कहा जाता है। अधिगम अंतरण तथा प्रशिक्षण अंतरण को समानार्थक शब्दों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। अधिगम अंतरण का अर्थ है, किसी विषय, कार्य अथवा परिस्थिति में अर्जित ज्ञान का उपयोग किसी अन्य विषय, कार्य अथवा परिस्थिति में करना। अतः जब एक विषय का ज्ञान अथवा एक परिस्थिति में सीधी बातें दूसरे विषय अथवा अंय परिस्थिति में सीखी जा रही बातों के अध्ययन में सहायक अथवा घातक होता है उसे सीखने का अंतरण कहा जाता है।
सीखे हुये कार्य का प्रयोग दूसरी परिस्थितियों में भी किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के ज्ञान के उपयोग करने की क्षमता, कौशलों और किसी भी तरह का सीखना बहुत सराहनीय है। अगर एक बालक गुणा या भाग सीखता है तो वह इसका उपयोग न सिर्फ कक्षा में करता है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर बाजार और घर में भी करता है। प्रशिक्षण का स्थानान्तरण उस प्रक्रिया को इंगित करता है जिसमें वह पहले सीखे हुये व्यवहार का नई परिस्थिति में उपयोग करता है। सकारात्मक पूर्व का सीखा हुआ दूसरी बार सीखने में सहायक होता है तो यह सकारात्मक स्थानान्तरण है। एक अच्छा विद्यार्थी सीखने के हर मौके को एक अच्छा अवसर मानकर उसका उपयोग करता है। सीखने की पूर्व उल्लिखित विभिन्न विधियाँ या प्रकार सीखने के बारे में कुछ मूल विचार प्रकट करते हैं। व्यक्तित्व, रुचि या अभिवृत्तियों में आने वाले परिवर्तन सीखने के कतिपय प्रकारों के परिणामस्वरूप हो ते हैं। यह बदलाव एक जटिल प्रक्रिया के साथ होते हैं। सीखने में उन्नति के साथ आप में सीखने की क्षमता विकसित हो ती है। अगर आप सीखते हैं तो आप एक बेहतर व्यक्ति, कार्यशैली में लचीले और सत्य को सराहने की निपुणता वाले बन जाते हैं।
अंतरण के प्रकार–
- धनात्मक अंतरण-
धनात्मक अंतरण को सकारात्मक अंतरण भी कहते हैं। जब पूर्व अर्जित ज्ञान नवीन ज्ञान को अर्जित करने में सहायक होता है, तो उसे धनात्मक अंतरण करते हैं। धनात्मक अंतरण में पूर्व ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण नहीं बातों को सिखाने में सहायता प्रदान करता है। स्पष्ट है कि किसी कार्य को करने का ज्ञान, योग्यता अथवा अनुभव जब अन्य कार्यों को करने में सहायक होता है तब इसे सीखने का धनात्मक अंतरण माना जाता है, जैसे हिंदी भाषा का ज्ञान संस्कृत भाषा सीखने में सहायता प्रदान करने के कारण धनात्मक अंतरण कहलाएगा।
2.. ऋणात्मक अंतरण-
ऋणात्मक अंतरण को निषेधात्मक अंतरण भी कहते हैं। जब पूर्व अर्जित ज्ञान नवीन ज्ञान को अर्जित करने में बाधक होता है, तो इसे ऋणात्मक अंतरण कहते हैं ऋणात्मक अंतरण में पूर्व ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण नई बातों को सीखने में व्यवधान उत्पन्न करता है। स्पष्ट है कि किसी कार्य को करने का ज्ञान, योग्यता अथवा अनुभव जब दूसरे कार्य को करने में घातक होता है। तब इसे सीखने ऋणात्मक अंतरण कहा जाता है, जैसे तेज चलने का अभ्यास दिल की बीमारी की स्थिति में चिकित्सक की सलाह के बावजूद धीमे चलने में बाधक होता है अतः इसे ऋणात्मक अंतरण कहा जाएगा।
3. क्षैतिज अंतरण-
जब किसी परिषद में अर्जित ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण का उपयोग व्यक्ति के द्वारा उसी प्रकार की लगभग समान पर स्थित में किया जाता है, तो इसे सीखने का क्षैतिज अंतरण कहते हैं। जैसे गणित में जुड़वां घटाने के प्रश्नों को हल करने का अभ्यास उसी तरह के अन्य प्रश्नों को हल करने में काम आता है।
4. ऊर्ध्व अंतरण-
जब किसी परिचित में अर्जित ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण का उपयोग प्राणी के द्वारा किसी अन्य भिन्न प्रकार की अथवा उच्चस्तरीय परिस्थितियों में किया जाता है। तब इसे सीखने का ऊर्ध्व अंतरण कहते हैं, जैसे स्कूटर चलाने वाले व्यक्ति द्वारा कार चलाना सीखते समय उसके पूर्व अनुभव का ऊर्ध्व अंतरण होता है।
5.द्विपार्श्विक अंतरण-
मानव शरीर को दो भागों दायें भाग तथा बायां भाग में बांटा जा सकता है। जब मानव शरीर के एक भाग को दिए गए प्रशिक्षण का अंतरण दूसरे भाग में होता है। तो इसे द्विपार्श्विक अंतरण कहते हैं, जैसे दाएं हाथ से लिखने की योग्यता का लाभ जब व्यक्ति बाएं हाथ से लिखना सीखने में करता है तो इसे द्विपार्श्विक अंतरण कहते हैं।
अंतरण की दशाएं–
सीखने का अंतर कुछ निश्चित परिस्थितियों में ही संभव होता है जब अंतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियां होती है तभी सीखने का अंतरण संभव होता है अंतरण की मात्रा भी उपलब्ध परिस्थितियों पर निर्भर करती है अंतरण को प्रभावित करने वाली कुछ विशेषताएं हैं-
- सीखने वाले की इच्छा
- सीखने वाले की मानसिक योग्यता
- सीखने वाले की शैक्षिक उपलब्धि
- सीखने वाले में सामान्यीकरण की योग्यता
- विषय वस्तु की समानता
- अध्ययन विधियों की समानता
- विषयों के अंतरण मूल्य
- प्रशिक्षण
तर्क–
तर्क (argument) कथनों की ऐसी शृंखला होती है जिसके द्वरा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी बात के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं। आम तौर पर किसी तर्क के बिन्दु साधारण भाषा में प्रस्तुत किये जाते हैं और उनके आधार पर निष्कर्ष मनवाया जाता है। लेकिन गणित, विज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक वैज्ञानिक भाषा में भी लिखे जा सकते हैं।
निगमनात्मक तर्क –
निगमनात्मक विधि के जन्मदाता अरस्तु है इस विधि में हम सामान्य ( सभी) से विशेष ( एक) की तरफ अग्रसर होते हैं अर्थात सभी से एक की तरफ बढ़ते हैं इस विधि का संबंध गणित से होता है।निगमनात्मक में पूर्व निर्णित सिद्धांत या सामान्य सत्य से तर्क द्वारा अज्ञात सत्य को प्रमाणित किया जाता है प्रायः ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है। – reasoning from known to unknown प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित निर्णय स्वीकार्य सत्य होते हैं – ग्रीक चिन्तक अरस्तु ने इस पद्धति का ब्यापक प्रयोग किया। तर्क की जिस प्रक्रिया में एक या अधिक ज्ञात सामान्य कथनों के आधार पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है, निगमनात्मक तर्क (Deductive reasoning या deductive logic) कहते हैं। ‘निगमनात्मक तर्क’, ‘आगमनात्मक तर्क’ से बिलकुल भिन्न है। नीचे एक निगमनात्मक तर्क दिया गया है-:
सभी मनुष्य नश्वर हैं।
मोहन मनुष्य है।
अतः मोहन नश्वर है।
इसमें छात्र स्वयं नियम नहीं बनाते, बल्कि शिक्षक उन्हें पहले बने नियमों, उदाहरणों, प्रयोगों ओर अनुभवों आदि से अवगत करवा देते है ओर उन्हें कुछ प्रश्नो के हल करके दिखा दिया जाता है|अतः यह विधि चलती है|
- नियम से उदाहरण की ओर,
- सामान्य से विशिष्ट की ओर,
- सूक्ष्म से स्थूल की ओर. एवं
- प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
निगमन विधि के दोष
- निगमन विधि में बालकों को शिक्षक द्वारा बनाया हुआ नियम अथवा दिया हुआ ज्ञान हर हालत में स्वीकार करना पड़ता है
- निगमन विधि आगमनात्मक विधि से बिल्कुल उल्टी है इस विधि में सामान्य से विशिष्ट की ओर, अज्ञात से ज्ञात की ओर तथा अमूर्त से मूर्त की ओर चलना पड़ता है इस दृष्टि से यह विधि शिक्षण की अमनोवैज्ञानिक विधि है
- यह विधि नियम उत्तर अथवा सिद्धांतों को बलपूर्वक रखने के लिए बात करती है परिणाम स्वरूप बालक पाठ में कोई रुचि नहीं लेते
- इस विधि से बालकों को अपने निजी प्रयासों द्वारा ज्ञान को खोजने का कोई अवसर नहीं मिलता है इससे उन में मानसिक दासता विकसित हो जाती है
- निगमन विधि द्वारा हुआ ज्ञान बालकों के मस्तिष्क का स्थाई अंग नहीं बनता
- बालकों में रचनात्मक प्रवृत्ति होती है अतः वस्तुओं को बनाने, बिगाड़ने अथवा तोड़ने पुणे में रुचि लेते हैं पर निगमन विधि केवल अमूर्त चिंतन पर ही बल देती है इससे बालकों की रचनात्मक शक्तियां अविकसित ही रह जाती है
- प्रयुक्त दोषों को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि निगमन विधि से आगमन विधि द्वारा खोजें हुए नियमों अथवा सिद्धांतों का प्रयोग अभ्यास बहुत अच्छा कराया जा सकता है
आगमनात्मक तर्क–
आगमनात्मक विधि के जन्मदाता फ्रांसीसी बेकन है यह विधि निगमनात्मक विधि का विलोम होती है इस विधि में हम विशेष (एक) से सामान्य (सभी) की तरफ बढ़ते हैं अर्थात एक से सभी की तरफ बढ़ते हैं इस वीर्य का संबंध विज्ञान से होता है। किसी वस्तु या प्रक्रिया में जो वस्तु या प्रमाण मिलते हैं, उनका निरिक्षण किया जाता है और इस तरह अनेक सामान वस्तुओं और प्रक्रियाओं (प्रोसेस) में परिलक्षित विशेष तत्वों के आधार पर सामान्य सिद्धांत बनाये जाते हैं। तर्क की जिस प्रक्रिया में एकाकी प्रेक्षणों के ज्ञात तथ्यों को जोड़कर अधिक व्यापक कथन निर्मित किया जाता है, आगमनात्मक तर्क (Inductive reasoning या induction) कहलाता है। यह ‘निगमनात्मक तर्क ‘ से बहुत भिन्न तर्क है।
राम मरणशील है
श्याम मरणशील है
मोहन मरणशील है
इसलिए सभी मनुष्य मरणशील है।
इस विधि में प्रत्यक्ष अनुभवों, उदाहरणों तथा प्रयोगों का अध्ययन कर नियम निकाले जाते है तथा ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सूझ बुझ से निर्णय लिया जाता है| इसमें शिक्षक छात्रों को अध्ययन करवाते है|
- प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर,
- स्थूल से सूक्ष्म की ओर,
- विशिष्ट से सामान्य की ओर,
प्रत्यक्ष तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धांतों तक पहुंचना आगमन पद्धति (इनडक्टिव मेथड) की प्रक्रिया है। इतालियन चिन्तक लिओ नारदो दा विन्ची ने पहले पहल इस पद्धति का ब्यापक प्रयोग किया। अंग्रेज चिन्तक फ्रांसिस बेकन ने इसे एक सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित किया।
आगमन विधि के गुण
- आगमन विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान के खोजने का प्रशिक्षण मिलता है यह प्रशिक्षण उन्हें जीवन में नए-नए तत्वों को खोज निकालने के लिए सदेव प्रेरित करता रहता है अतः यह विधि शिक्षण की एक मनोवैज्ञानिक विधि है
- आगमन विधि ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा सरल से जटिल की ओर चलकर मूर्त उदाहरणों द्वारा बालकों से सामान्य नियम निकलवाए जाते हैं इससे वह शक्ति तथा प्रसन्न रहते हैं ज्ञानार्जन हेतु उनकी रुचि निरंतर बनी रहती है एवं उनमें रचनात्मक चिंतन आत्मविश्वास आदि अनेक गुण विकसित हो जाते हैं
- आगमन विधि में ज्ञान प्राप्त करते हुए बालक को सीखने के प्रत्येक स्तर को पार करना पड़ता है इस से शिक्षण प्रभावशाली बन जाता है
- इस विधि में बालक उदाहरणों का विश्लेषण करते हुए सामान्य नियम स्वयं निकाल लेते हैं इससे उनका मानसिक विकास सफलतापूर्वक हो जाता है
- इस विधि द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्वयं वालों को का खोजा हुआ ज्ञान होता है आता ऐसा ज्ञान उनके मस्तिष्क का स्थाई अंग बन जाता है
- यह विधि व्यवहारिक जीवन के लिए अत्यंत लाभदायक है फतेह विधि एक प्राकृतिक विधि है
आगमन विधि के दोष
- इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैं
- यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं है इनका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकते हैं सामान्य बुद्धि वाले बालक तो पराया प्रभावशाली बालको द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को आंख मीचकर स्वीकार कर लेते हैं
- आगमन विधि द्वारा सिखाते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की और पहुंच जाएं तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है
- आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती
- यह विधि स्वयं में अपूर्ण है इसके द्वारा खोजें हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक है
- आगमन विधि ही ऐसी विधि है जिसके द्वारा सामान्य नियम तथा सिद्धांतों की खोज की जा सकती है।
अतः इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय यह आवश्यक है कि शिक्षक उदाहरणों तथा प्रश्नों का प्रयोग बालको के मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए करें इससे उनकी नवीन ज्ञान को सीखने में उत्सुकता निरंतर बढ़ती रहेगी
निगमन | आगमन |
निगमन पद्धति सिद्धांत केन्द्रित है | आगमन पद्धति वास्तु केन्द्रित है |
निगमन पद्धति में सामान्य सिद्धांत से विशेष तथ्य की ओर जाकर उसके गुणों का परिक्षण किया जाता है | आगमन पद्धति में विशेष वस्तुओं के गुणों के आधार पर सामान्य सिद्धांत बनाये जाते हैं |
निगमन पद्धति में कुछ अनुमान से काम लिया जाता है | आगमन पद्धति में केवल तथ्यों को आधार बनाया जाता है |
निगमन पद्धति में सैद्धांतिक कथन के रूप को आधार मान कर अन्य तत्वों की सत्यता को प्रमाणित या अप्रमाणि किया जाता है | आगमन पद्धति में वस्तुओं का परिक्षण कर निर्णयों पर पहुँचा जाता है |
निगमनात्मक विधि में युक्ति का मूल्यांकन करते समय वैध एवं अवैध शब्दों का प्रयोग किया जाता है | आगमनात्मक युक्ति का मूल्यांकन करते समय उचित एवं अनुचित या अच्छा खराब शब्दों का प्रयोग किया जाता है |
निगमन एवं आगमन पद्धति के मुख्य अंतर
अतः निगमन पद्धति का उपयोग दर्शन या गणित आदि में अधिक होता है और आगमन पद्धति का प्रयोग वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में होता है।
समस्या समाधान विधि –
किसी समस्या का समाधान (हल) प्राप्त करने के लिए क्रमबद्ध तरीके से किसी सामान्य विधि तथा प्रदर्शित विधि का उपयोग करना पड़ता है समस्या समाधान अधिगम (लर्निंग बाई सॉल्विंग प्रॉबुलेम्स) के अंतर्गत जीवन में आने वाली नवीन समस्याओं के तरीकों का सीखना आता है।
मानव जीवन में अनेक समस्याएं आती है, जिससे उसमें तनाव, द्वन्द, संघर्ष, विफलता, निराशा जैसी प्रवृतियाँ जन्म लेती है। ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को प्रारम्भ से ही समस्या समाधान विधि द्वारा अध्ययन देकर उनमें तर्क व निर्णय द्वारा किसी समस्या को सुलझाने की क्षमता का विकास करना चाहिए।
इसमें छात्रों की शैक्षणिक कठिनाई का समाधान किया जाता है व छात्र स्वंय सीखने में प्रेरित होते है। ब्रोन -1971 ने उस स्थिति को समस्यातमक कहा है जिसमें व्यक्ति किसी लक्ष्य तक पहुँचने की चेष्टा करता है व प्रारम्भ प्रयास में असफल हो जाता है उसके लिए उसे दो या अधिक अनुक्रियाएँ करनी पड़ती है।
समस्या समाधान शिक्षा के सोपानः- जेम्स एम.एल.
- समस्या का चयन करना
- समस्या के कारणों का पता लगाना
- समस्या से सम्बन्धित तथ्यों, सूचना का एकत्रण करना
- समस्या का हल खोजना (विश्लेषण व निष्कर्ष)
- समस्या का हल व समाधान निकालने का प्रयोग।
विशेषताएँ–
1. यह छात्रों को समस्या समाधान के लिए विशेष प्रशिक्षण प्रदान करती है।
- उसमें छात्र क्रियाशील रहता है व स्वंय सीखने का प्रयत्न करता है।
- यह मानसिक कुशलता के विकास में सहायक है
- यह छात्रों को आत्मनिर्णय लेने में कुशल बनाती है।
- छात्रों की स्मरण शक्ति के स्थान पर इससे बुद्धि प्रखर होती है।
- छात्रों में मौलिक चिन्तन, उदारता, सहिष्णुता, सहयोग जैसे का विकास होता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ–
- अरुण कुमार सिंह (2008). “मनोविज्ञान में प्रयोग एवं परियोजना”. मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स. 22. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8120833228.
- डॉ॰ मुहम्मद सुलैमान (2007). “उच्चतर शिक्षा मनोविज्ञान”. p. 304. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8120824180.
- एस॰के॰ मंगल (2010). “शिक्षा मनोविज्ञान”. पीएचआई लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड. 209. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120332805.
- एस॰के॰ मंगल (2010).“शिक्षा मनोविज्ञान”. पीएचआई लर्निंग प्राइवेट लिमिटेड. 210. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120332805.
- बद्रीलाल गुप्ता (2012). सीखने की विधियाँ. कॉन्सेप्ट पब्लिशिंग कम्पनी.आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8180697479.
- Warren Choate (1922). The Art of Debate. Allyn and Bacon. p. 74.
- H. P. Grice, Logic and Conversation in the Logic of Grammar, Dickenson, 1975.
- Frans van Eemeren and Rob Grootendorst, Speech Acts in Argumentative Discussions, Foris Publications, 1984.
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